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INDIA'S STRUGGLE FOR INDEPENDENCE 1857-1947

INDIA'S STRUGGLE FOR INDEPENDENCE 1857-1947
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Monday 11 May 2020

1857 की लड़ाई के बाद देश में सब कुछ ठंडा पड़ गया. इतने लोग मरे थे कि किसी की हिम्मत नहीं होती थी आवाज उठाने की. दिवाली के पटाखे जलने के अगले दिन शहर में जो धुआं-धुआं सा रहता है और सभी लोग अलसाये रहते हैं, वैसा ही कुछ. हर घर से नौजवानों का मरना कोई छोटी बात नहीं थी. हिम्मत टूट गयी. इसके साथ ही आम जनता को इस बात का भी अहसास होने लगा कि राजे-रजवाड़ों के बस की बात ना रही. इनसे ना हो पायेगा. पर एक बात जरूर थी. बिना पढ़े-लिखे किसान सैनिकों ने पुराने हथियारों से जो जंग लड़ी थी, उसने दिल में एक गुरूर जरूर भर दिया था. जनता के जागने के लिए ये गुरूर बहुत जरूरी होता है. उन सैनिकों को ये नहीं पता होगा कि उनका जुनून जनता के लिए मिसाल बन जायेगा.


आइये, देखते हैं कि 1857 के बाद क्या-क्या हुआ:

ब्रिटेन की महारानी ने इंडिया को अपने हाथ में ले लिया 


उधर ब्रिटेन में अलग ही प्रपंच चल रहा था. इंडिया पर राज करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी थी तो व्यापारियों की कंपनी. 200 सालों में उन्होंने पैसा भी खूब बनाया था. इस बात से ब्रिटिश राजनेता बहुत जलते थे. 1857 की लड़ाई के बाद उनको मौका मिल गया. ब्रिटेन की महारानी के कान भरे गए. और ईस्ट इंडिया कंपनी पर महारानी और ब्रिटिश संसद का कब्जा हो गया. व्यापारियों से कहा गया कि आप बिजनेस पर ध्यान दीजिये. जनता को मोटिवेशन दीजिये. बाकी सब हमारी जिम्मेदारी.
क्वीन विक्टोरिया
क्वीन विक्टोरिया
अब ब्रिटिश राज ने भारत के लिए कानून बनाना शुरू कर दिया. उस वक़्त हिंदुस्तान में कानून का मतलब बड़े-बूढ़ों का फैसला होता था. लिखित में कुछ नहीं था. सब कुछ अच्छा तो नहीं था. धर्म और जाति के आधार पर फैसले होते थे. पर सब कुछ बुरा भी नहीं था. अंग्रेज हैरान रह गए थे, जब उनको पता चला कि शिक्षा भारत की मूलभूत व्यवस्था है. सबको पढ़ना ही पढ़ना है. पर ये पढ़ाई साइंस की नहीं थी. पुराने ज़माने की थी. ब्रिटेन ने इसको बदलना शुरू किया. इरादा था कि लोकल लोग अंग्रेजी पढ़ेंगे, तो ब्रिटिश राज को काम करने में सुविधा रहेगी. लोगों को पद और पैसा मिलेगा, तो विद्रोह की भावना कहीं और चली जाएगी. तमाशा तो ये था कि एक जमाने में भारत की धन-संपदा के बारे में सुनकर बिना पता जाने नाव में बैठकर समंदर पार कर के सामान खरीदने-बेचने आये लोग कानून बनाने लगे:

जो लोग मेरा नक्श-ए-कदम चूम रहे थे,
अब वो भी मुझे राह दिखाने चले आये.

फिर आर्मी में आमूल-चूल बदलाव किये गए. ‘लड़ाकू’ जाति और ‘डरपोक’ जाति का कांसेप्ट लाया गया. जो लोग ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़े थे, उनको आर्मी से निकाला गया. और उनको कायर कह दिया गया. जिन लोगों ने अंग्रेजों का साथ दिया था, उनको तरह-तरह के खिताब दिए गए. उनको ‘लड़ाकू कौम’ कहा गया.

हिन्दुस्तानी अब ब्रिटिश तौर-तरीकों को समझने लगे, मजबूरी में ही सही

थक-हारकर जनता ने ब्रिटिश सिस्टम की पढ़ाई शुरू कर दी. लोग ब्रिटिश लॉ, पत्रकारिता, हिस्ट्री, फिलॉसफी पढ़ने लगे. ये नई चीज हो गयी. अचानक से लोगों को राजनीति समझ आने लगी. एक नया रास्ता मिलने लगा कि ब्रिटिश कानून का इस्तेमाल कर उनको घेरा जा सकता है.
फिर मुंह से बोल-बोलकर कितने लोगों को समझायेंगे. अखबार छापकर ज्यादा लोगों को एक साथ समझाया जा सकता है. मराठा, केसरी, आनंद बाज़ार पत्रिका धड़ाधड़ छपने लगे. पर सरकार की खुल्ले में आलोचना करना संभव न था. इसके लिए तरकीब निकाली गई.
अमेरिका और इंग्लैंड की वो खबरें उठाई जातीं, जो इंडिया की खबरों से मिलती-जुलती थीं. वैसी खबरें जिनमें सरकार की धज्जियां उड़ाई जाती थीं. अब इंडिया में लोग पढ़ के समझ जाते कि किसका काम लगाया जा रहा है. ब्रिटिश अफसर तिलमिला के रह जाते, पर कुछ कर ना पाते.
सत्येन्द्रनाथ टैगोर, पहले ICS ऑफिसर
सत्येन्द्रनाथ टैगोर, पहले भारतीय ICS ऑफिसर
तब तक एक और काम होने लगा. ब्रिटिश सरकार ने सिविल सर्विस का एग्जाम लेना शुरू कर दिया. इसमें भारतीयों को भी मौका दिया. यहां के लोग लगे पास करने. सत्येन्द्र नाथ टैगोर बने पहले ICS ऑफिसर. तो तुरंत अंग्रेजों ने इस एग्जाम की एज-लिमिट कम कर दी. इसके चलते ज्यादा भारतीय एग्जाम दे ही नहीं पाते. क्योंकि देर से पढ़ना ही शुरू करते थे. थोड़े ना लन्दन में रहते थे. अब 24 परगना के लोग कैसे जल्दी पढ़ पाते ब्रिटिश कोर्स? जो भी हो, ये पता चल गया कि जो ब्रिटिश अफसर हौंकते रहते हैं, ये कुछ है नहीं. हम भी पढ़ेंगे, तो अफसर बन जायेंगे. अफसरी का इंद्रजाल टूटने लगा.

इन सारी चीजों का नतीजा ये हुआ कि अब देश में एक संगठन की जरूरत महसूस की जाने लगी. बहुत सारे अंग्रेज अफसर हिंदुस्तान में काम किये थे, उनको यहां से लगाव जैसा हो गया था. वो भी लोगों के साथ आ गए. 1885 में बना एक संगठन: कांग्रेस. ब्रिटिश अफसर ए ओ ह्यूम और 72 देसी नेताओं ने मिल के इसकी नींव रखी.

साधुओं के भरमाये हुए ह्यूम ने बना दी कांग्रेस, अंग्रेजों के साथ ‘चुत्स्पा’ हो गया

ह्यूम की कहानी दिलचस्प है. अफसरी करते-करते आज के उत्तराखंड वाले इलाके में भी इनकी पोस्टिंग हुई थी. वहां पर इनको ‘हिमालय’ में रहने वाले साधु मिले थे. उन्होंने इनको भरमा दिया कि बेटा, हम सब जानते हैं. हमारी मर्जी से ही सब होता है. अब ह्यूम लगे इस बात की पर्ची बनाने. तंतर-मंतर में विशेष रूचि हो गई भाई की. इसको वो वायसराय के पास भेजते. कि संत जी बोले हैं. यही करिए, कल्याण होगा. कुछ लोगों को तो डरा दिए. पर एक नया वायसराय डफरिन आया. उसने ह्यूम को दबा के दी दवाई. तब जा के उनकी गतिविधि रुकी.
ए ओ ह्यूम
ए ओ ह्यूम
हालांकि ये भी कहा जाता है कि अंग्रेजों ने जान-बूझ के कांग्रेस को बनवाया था. कि भारत के लोग फिर विद्रोह ना करें. और ब्रिटिश राज चलता रहे.
पर हिन्दुस्तानी लोगों ने इस बात का पूरा प्रयोग किया जनता को जगाने में. उस वक़्त ये नेता बड़े नरम रहते थे. अंग्रेजों से बहस नहीं करते.
इसी बात को लेकर गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने गुरू रानाडे से कहा था कि गुरूजी, हम यही करेंगे तो आनेवाली पीढ़ी गाली नहीं देगी? रानाडे ने कहा कि बेटा , तुम समझ नहीं रहे हो, जो काम हम अभी कर रहे हैं, वो कई पीढ़ियों को जिन्दा रखने के काम आएगा. फिर कांग्रेस में इस बात का ख्याल रखा गया कि हर धर्म और हर जगह के लोग इसमें शामिल रहें. इसीलिए हर साल अलग-अलग जगहों और कौम के लोग अध्यक्ष बनते.