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Third Battle Of Panipat - 1761

Third Battle Of Panipat - 1761
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Monday 11 May 2020


  • लड़ाई: मराठा साम्राज्य और दुर्रानी साम्राज्य (अफगानिस्तान) के बीच
  • इसमें शामिल लोग: सदाशिवराव भाऊ (मराठा सेना के कमांडर-इन-चीफ), विश्वासराव, मल्हारराव होलकर, अहमद शाह दुर्रानी (जिन्हें अहमद शाह अब्दाली भी कहा जाता है)।
  • कब: 14 जनवरी 1761
  • कहां: आधुनिक समय में हरियाणा में पानीपत (दिल्ली से 97 किमी उत्तर)।
  • परिणाम: अफगानों के लिए विजय।
  • दुर्रानी को दोआब के रोहिला और अवध के नवाब-शुजा-उद-दौला से समर्थन मिला।
  • मराठा राजपूतों, जाटों या सिखों का समर्थन पाने में असफल रहे।
Extent of the Maratha Empire, 1760
4 मई, 1758
  • पेशवा बालाजी बाजीराव मराठा साम्राज्य के सिंहासन पर बैठे थे. उनके भाई रघुनाथ राव यानी राघोबा चम्बल तक पहुंच कर तैमूर सुल्तान और जहान खान को पीछे खदेड़ चुके थे. इसके बाद उन्होंने पेशवा को एक चिट्ठी लिखी.

हमने लाहौर, मुल्तान, कश्मीर, और दूसरे सूबों को अटक की तरफ मिला लिया है. हमारे साम्राज्य में. जो नहीं आ पाए हैं, वो जल्द ही हमारी मातहती में होंगे. अहमद खान अब्दाली का बेटा तैमूर सुलतान और जहां खान हमारी सेनाओं द्वारा खदेड़े और लूटे जा चुके हैं. दोनों ही कुछ टूटे-फूटे दल-बल के साथ पेशावर पहुंचे हैं. हमने कांधार पर अपना राज घोषित करने का निर्णय ले लिया है

  • राघोबा की ये चिट्ठी पढ़कर पेशवा बालाजी राव ख़ुशी से फूले न समाए. पूना के अपने महल में बैठे उन्होंने पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य स्थापित करने के सपने देखे थे. मुगलों का शासन दरक चुका था. दक्षिण में निज़ाम ही था जिसने चुनौती देने की कूवत जिंदा रखी थी. लेकिन वो भी जल्द ही बदलने वाला था. पेशवा ने राघोबा को दक्षिण बुला लिया. निज़ाम को सबक सिखाने के लिए. उत्तर में पंजाब तक अपनी सीमा बढ़ाने के बाद मराठा अब सीधे-सीधे अफ़गान साम्राज्य के आमने-सामने पहुंच चुके थे. जब निज़ाम से लड़ने का मौक़ा हाथ आया, तो मराठा सेना दक्षिण निकल पड़ी. पंजाब में मात्र 15,000 मराठा सैनिक रह गए. एक साथ उत्तर और दक्षिण दोनों पर कब्ज़ा करने के चक्कर में पेशवा बालाजी बाजीराव युद्ध के सबसे बड़े सबकों में से एक भूल गए.

आगे बढ़ने से पहले, एक नज़र इस महायुद्ध के किरदारों, और इसके पीछे की कहानी पर. 

➣पेशवा बाजीराव.  पूरा नाम, पंतप्रधान श्रीमंत पेशवा बाजीराव बलाळ बालाजी भट. छत्रपति शाहू के पेशवा. यानी मुख्यमंत्री. इनका नाम इतिहास में इनके कुशल नेतृत्व के लिए लिखा गया. इनकी और मस्तानी की प्रेम कहानी भी. इनके चार बेटे हुए. बालाजी बाजी राव, रघुनाथ राव (राघोबा), जनार्दन राव, और शमशेर बहादुर. बाजी राव की मृत्यु के बाद छत्रपति शाहू ने बालाजी बाजीराव को पेशवा पद पर नियुक्त किया. इनको लोग नाना साहेब भी कहते थे.
➣इनके शासन के दौरान होल्कर, सिंधिया, भोसले जैसे गुटनायकों का असर बढ़ा. इतिहासकारों का मानना है कि पेशवा बालाजी बाजीराव के पास सैन्य चतुराई का अभाव था. इस वजह से उनके शासनकाल के ख़त्म होने तक मराठों ने तगड़ी हार झेली. अब्दाली के हाथों. पानीपत की तीसरी लड़ाई में. साल 1761.

अब चलते हैं वापस. युद्ध के उस साल में,जिस साल एक लाख मराठा कुछ ही घंटों में रणभूमि पर खेत रहे थे. 

➣जैसे ही मराठा सेना दक्षिण की तरफ निकली, अफ़गान सेना को मौका मिल गया पंजाब की तरफ से हमला करने का.  उनके नेता को सांस लेने के लिए हवा मिल गई थी, वो इसे छोड़ना नहीं चाहता था. उसका नाम था अहमद शाह अब्दाली. दुर्रानी सल्तनत का सिरमौर.
➣उसने पंजाबी के रास्ते आक्रमण किया. अपने साथ रोहिलखंड के नजीबउद्दौला को मिला लिया. दोनों ही पश्तून थे. यही नहीं, अवध का नवाब शुजाउद्दौला भी उसके साथ मिल गया. अब्दाली ने उसे इस्लामी भाईचारे की दुहाई देकर साथ मिला लिया. उसे पहले से ही मराठों से नफरत थी. इस बार अब्दाली के साथ मिलकर उनसे बदला लेने का ये मौका वो छोड़ना नहीं चाहता था.
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अब्दाली पहले भी हिंदुस्तान पर आक्रमण कर चुका था. लेकिन इस बार मचाई जाने वाली तबाही कहीं ज्यादा खतरनाक थी. (तस्वीर: विकिमीडिया)
➤तकरीबन 60,000 सैनिकों के साथ अहमदशाह अब्दाली ने कूच किया. ये खबर सुनते ही पेशवा ने सदाशिवराव भाऊ को पूना से कूच करने का आदेश दिया. ये उनके रिश्ते के भाई थे. राघोबा ने उत्तर भारत में भले ही तैमूर और जहान की सेनाओं को हरा दिया था, लेकिन इसमें उम्मीद से कहीं ज्यादा खर्च हुआ था.
कौशिक रॉय अपनी किताब India’s Historic Battles: From Alexander the Great to Kargil में बताते हैं कि उत्तर में राघोबा के आक्रमण और जीत के बावजूद मराठा साम्राज्य को 88 लाख रुपए का घाटा हुआ था. इसके बाद पेशवा ने निजाम की सेना से लड़ने के लिए भी सदाशिवराव भाऊ को भेजा. 1760 में उदगिर की लड़ाई में निजाम की सेना को हराकर तकरीबन 60 लाख रुपए का फायदा अपने साथ लाए थे सदाशिवराव. इसके बाद उन्हें अब्दाली के सामने चुनौती खड़ी करने के काबिल समझ रहे थे पेशवा.
 

युद्ध की शुरुआत होने पर कुछ घंटों के लिए ही सही, उन्हें लगा वो शायद सही साबित होंगे. लेकिन उसके बाद पासा पलट गया.

➤सदाशिवराव ने कूच तो कर दिया, लेकिन अपने साथ बहुत सारा गैर ज़रूरी  सामान, परिवार और साथी-संघाती भी साथ लेकर चल निकले. ये वो लोग थे जो युद्ध लड़ने के लायक नहीं थे. केवल साथ जा रहे थे. जाट राजा सूरजमल ने उन्हें इसकी बाबत चेतावनी भी दी. कहा कि इतना तामझाम लेकर मत चलो. चम्बल के इस तरफ ही ये सब कुछ छोड़ दो. हल्के सामान के साथ अटैक करो. उससे तुम्हें ही मदद मिलेगी. लेकिन सदाशिव ने अनसुना कर दिया. साथ में उनके आ मिला इब्राहिम खान गर्दी. पहले निजाम की सेवा में था. फिर मराठा साम्राज्य के साथ आ गया. उसके पास यूरोपियन हथियार थे. फ्रांस के लड़ाकों से मिली ट्रेनिंग थी. सदाशिवराव को ये भरोसा था कि वो इनके भरोसे बेहद सलीके से अफ़गानों से निपट लेंगे.
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सदाशिव पर पेशवा को पूरा भरोसा था कि ये जीत कर लौटेंगे. (तस्वीर: विकिमीडिया)
➤दिल्ली से होते हुए सदाशिवराव अपनी सेना के साथ अब्दाली के सामने पहुंचे. अब्दाली की सेना यमुना के उस पार थी. सदाशिव की इस पार. यहीं से वो लोग उत्तर की तरफ बढ़े. और कुंजपुरा में अब्दाली के किले को ध्वस्त कर दिया. इस किले की हिफाज़त का जिम्मा क़ुतुब शाह के ऊपर था. उसके साथ वहां मौजूद तकरीबन 10,000 अफगानों को भी मराठों ने मौत के घाट उतार दिया. क़ुतुब शाह का कटा हुआ सिर लेकर मराठों ने जीत का जश्न मनाया.
  • इस हार ने अब्दाली का खून खौला दिया. अपनी सेना के साथ उसने यमुना पार की, और खुद को मराठों और दिल्ली के बीच टिका लिया. भाऊ आगे बढ़कर सिखों से मदद मांगने की सोच रहे थे, लेकिन जब अब्दाली के यमुना पार करने की खबर उन तक पहुंची, तो वहीं थम गए. जब वापस लौटने की कोशिश की, तो हर तरफ से खुद को घिरा हुआ पाया. इस तरह वो दिल्ली नहीं जा सकते थे. पानीपत में फंस कर रह गए. खेमे में रसद घटनी शुरू हो गई. मराठों ने गोविन्दपन्त बुंदेले को जिम्मा दिया, कि अब्दाली के खेमों तक पहुंचने वाली रसद की सप्लाई काट दो. कुछ समय तक उन्होंने ये मोर्चा संभाला, लेकिन 17 दिसंबर 1760 को उन्हें मार डाला गया. इसके बाद मराठों की सेना और भी कमज़ोर पड़ती गई. वहीं अब्दाली को रसद पहुंचाने के लिए रोहिलखंड मौजूद था, जिसका राजा नजीबउद्दौला अब्दाली से मिला हुआ था.
Abdali Coronation Wiki
अब्दाली की ताजपोशी की एक तस्वीर. (तस्वीर: विकिमीडिया)
➤सितंबर में ही सदाशिव ने चिट्ठी लिखी पेशवा को. कि उनके खेमे संकट में हैं. इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा:

सबसे बड़ी दिक्कत राशन की है. दुश्मन की मौजूदगी और बाहर बिगड़े हुए हालात की वजह से हम ऋण भी ले पाने की स्थिति में नहीं हैं. सभी लेन-देन के मामले ठंडे पड़े हुए हैं. हमारे खेमे में रसद बेहद कम है. बाहर से राहत असंभव है. अब्दाली बेहतर स्थिति में है.

➤पेशवा ने जवाब भेजा, हम तुम्हारे लिए कुमक पहुंचाने की तैयारी कर रहे हैं. डटे रहो. लेकिन वो वादा झूठा निकला. कुमक न आनी थी, न आई. खेमे के घोड़े भूख से मरने लगे. वहां मौजूद लोगों की फाके करने की नौबत आ गई. ऐसी हालत में सैनिकों ने सदाशिव भाऊ के पास जाकर विनती की. अब नहीं सहा जाता. अब तो आर या पार. कर ही डालिए. वो तारीख थी 13 जनवरी, 1761.
➤अगले दिन मकर संक्रांति थी. जिस दिन सूर्य उत्तरायण होता है. हिंदू धर्मानुसार एक बेहद पवित्र दिन. इसी दिन सदाशिव की सेना ने कूच किया.
➤अफ़गानों की सेना खेमे डालकर बैठी हुई थी. आगे सैनिकों की पंक्तियों के करीब ढाई मील पीछे एक लाल रंग का टेंट था. इस टेंट के भीतर बैठा रोबदार अब्दाली हुक्का फूंक रहा था. तभी उसके पास शुजाउद्दौला दौड़ा-दौड़ा आया. हांफते हुए बोला,
खबर मिली है. मराठों की सेना जंग के लिए कूच कर चुकी है.
➤अब्दाली अब भी बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. सुनकर हुक्के को परे रखा, और कहा, सही खबर मिली है आपको.
➤इसके बाद अपनी सेना का निरीक्षण कर उसे कूच करने का आदेश दे दिया.
➤अर्धचन्द्र के आकार में उसकी सेना ने कूच किया, और वहीं सामने से सदाशिव की सेना तीन हिस्सों में बंटी हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. मैदान के एक तरफ से पुकार उठ रही थी
हर हर महादेव !!!
दूसरी तरफ से जवाब आता
दीन दीन !!!
इब्राहिम गर्दी के साथ चल रहे सैनिकों ने फायर करना शुरू किया. शुरुआत में अफगानों के पांव उखड़ गए. लेकिन मराठों की सेना अपना अटैक बनाए नहीं रख सकी. और अब्दाली ने पीछे से हजारों सैनिक और भेज दिए.

ऐतिहासिक भूलें ऐसी ही होती हैं

➯विश्वासराव को गोली लग गई. वो मैदान में गिर पड़े. भाऊ विश्वासराव से बहुत प्यार करते थे. जैसे ही उन्होंने उनको गिरते हुए देखा, मौके की नज़ाकत का ख़याल उनके ज़हन से निकल गया. वो अपने हाथी से उतरे और एक घोड़े पर सवार हो कर दुश्मनों के बीच घुस गए. अंजाम की परवाह किए बगैर. उनके पीछे उनके हाथी पर हौदा ख़ाली नज़र आ रहा था. उसे ख़ाली देख कर मराठा सैनिकों में दहशत फ़ैल गई. उन्हें लगा कि उनका सेनापति युद्ध में मारा गया. अफरा-तफरी मच गई. मनोबल एकदम से पाताल छूने लगा. अफ़गान सेना ने इसका फ़ौरन फायदा उठाया. वो घबराई हुई मराठा सेना पर नए जोश से टूट पड़े.
  • बेरहमी से मराठा सेना का क़त्लेआम हुआ. हालांकि भाऊ अंतिम सांस तक लड़ते रहे. एक लंबे संघर्ष के बाद ही उनकी जान ली जा सकी. उनका बिना सिर वाला शरीर जंग के तीन दिन बाद लाशों के ढेर से बरामद हुआ. उनका पूरे रीतिरिवाजों के साथ अंतिम-संस्कार किया गया.
अगले दिन उनका सिर भी बरामद किया गया. उसे एक अफ़गान सैनिक ने छुपाके रखा हुआ था. उसका भी अंतिम-संस्कार हुआ और अस्थियां विसर्जन के लिए काशी ले जाई गई.

इस हार के बाद मराठा साम्राज्य के बुरे दिन शुरू हो गए

  • इस युद्ध में हुई हार ने मराठी साम्राज्य की कमर तोड़ दी. पेशवाई का दबदबा धूल में मिल गया. पानीपत के पहले जो मराठा साम्राज्य सफलता की उंचाइयां छू रहा था, वो एकदम से कमज़ोर, दीन-हीन हो गया. छोटी सी गलती की बड़ी सज़ा का इससे बड़ा उदाहरण नहीं होगा इतिहास में.
  • आपको एक दिलचस्प बात और बताते हैं. इस युद्ध के बाद से एक कहावत मराठी जनमानस का हिस्सा बन गई. अपने युवा पेशवा विश्वासराव की मौत का सदमा मराठी जनता के लिए बहुत भारी था. पूरा महाराष्ट्र हफ़्तों तक शोक मनाता रहा.
उसके बाद से जब भी कहीं ‘विश्वास’ का ज़िक्र आता है, मराठी आदमी अपने पेशवा को एक कहावत के ज़रिए याद करता है. अगर आप किसी मराठी आदमी से कहें कि वो आपका विश्वास करे और वो आप पर भरोसा करने का इच्छुक ना हो तो वो आपसे कहेगा, ‘विश्वास तर गेला पानीपतच्या लढाईत.’ (विश्वास तो पानीपत के युद्ध में ही मर गया था). इतिहास का ज्ञान ना रखने वाले लोगों तक को इस कहावत का इस्तेमाल करते सुना जा सकता है, जिन्हें पानीपत की लड़ाई के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं.
इतिहास विचित्र है. इतिहास सीखों से भरा हुआ है. ये हमें बताता है कि इसकी गलतियों से सबक लेना ही सीखने का सर्वोत्तम तरीका है.
1761 की 20 जनवरी का दिन था वो जब, सदाशिवराव भाऊ ने अपनी जान और मराठा सेना का सम्मान गंवाया था. महज़ एक लम्हे के लिए उनका विवेक से नाता टूट गया था और आगे का किस्सा इतिहास बन गया.
  • कई इतिहासकारों का मानना है कि दक्षिण और उत्तर में एक साथ लड़ाई लड़ने की कीमत मराठों को चुकानी पड़ी. पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों के भविष्य के लिए बेहद अहम साबित हुई. भले ही इस युद्ध में वो जीत न सके, लेकिन उनकी वीरता की तारीफ़ खुद अब्दाली ने भी की. मराठा साम्राज्य दुबारा अपने पांवों पर खड़ा होने में सफल हुआ. इस युद्ध में घुड़सवारों और हाथी-सवारों के बजाए पैदल सैनिकों और हल्के, बेहतर हथियारों ने अपनी महत्ता दिखाई. कौशिक रॉय अपनी किताब में इसका ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:

पानीपत की तीसरी लड़ाई ने दक्षिण एशिया में आधुनिक युद्ध का पहला उदाहरण पेश किया.

युद्ध के बाद पेशवा बालाजी बाजी राव की मृत्यु हुई. मराठा साम्राज्य खुद को संभालने की कोशिश में जुट गया. उनके मुखिया बने पेशवा माधव राव. इन्हीं के नेतृत्व में तकरीबन दस साल तक मराठों ने अपने खोया हुआ रूतबा वापस हासिल किया. इनके साथ नाना फडनवीस और महादजी शिंदे (सिंधिया) की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही.